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कविता

साँझ

प्रांजल धर


सर्द साँझ को
गीत उमड़ उठते हैं
सूरज की उतरती रोशनी में
काफिले के साथ रहने वाले
घंटे की चीख सुनकर।
कापालिकों के तंत्र, अनहद नाद
सूफियों के हाल
बाला-मरदाना की कथाएँ
किनारे चली जाती हैं
‘उतने अंतराल के लिए
जो घंटी के दो सुरों के बीच होता है।’ *
शरद की थकी घास पर टिकी
ओस की बूँदों के आगे
अकिंचन हो जाता सब।
तमाम धर्मोपदेश, शिक्षाएँ,
ग्रंथ, पुराण, आख्यान
आयतें।
गोलाइयों से भरे मांसल फूल भी।
पुरातत्व में समाए
शुरुआती सिद्धांतों के बुनियादी मूल भी।
सब अकिंचन हो जाते हैं।
 
जाग उठती हैं सहसा
भाव-श्रृंगों की कोमल बुनावट
मन के फौलादी बक्से में
ठूँसी स्मृतियों की कसावट।
तरावट, हृदय की।
...और मुर्दा शब्दों की थकावट।
अंदर का आदमी जागता है
इस दुनिया से बड़ी दूर भागता है
उसका बदहवास बचा जीवन
अपने ही आँसुओं में बहता जाता है
पीढ़ियों सँजोया उसका अपना ही उपवन।
खयालों का।
 
साँझ को उमड़े गीतों में
मेघों का कलेजा चीरकर निकली
बिजली की एक तीखी लकीर-सी
कोई जिंदा भावना
बैठ जाती है, अड़ जाती है,
मन के नए पौधे की
आधी झुकी डाली पर।
खड़ा हो जाता है पुलिंदा सवालों का 
चकाचौंध रोशनी छा जाती है आँखों पर।
सवाल ; सवाल-दर-सवाल, सवालों के जाल
जेम्स लॉग** पर चले अँग्रेजी मुकदमे की माफिक।
मन दबे स्वरों में
कमजोर उत्तरों की व्यवस्था करता है
दूसरी जाति की लड़की से ब्याह करने के बाद
एक बहिष्कृत जीवन की कुचली लकीरों-सा...
उत्तर सन्तोषजनक हैं या नहीं;
यह जाने बिना रोम-रोम ठिठक जाता है
तब तक काफिले का।
...और गुजर जाती है जिंदगी की साँझ
किसी तरह।
 
* चर्चित जापानी कवि इजूमी शिकिबू की एक मोहक काव्य-पंक्ति।
** दीनबंधु मित्र के नाटक ‘नील दर्पण’ का अँग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करने के जुर्म में अँग्रेज सरकार ने रेवरेड जेम्स लॉग पर एक रोमांचक मुकदमा चलाया था।
 

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